क्रांतिकारियों के प्रेरणा स्त्रोत भाई परमानंद ( जन्मतिथि 4 नवंबर)

WebDesk
Updated: November 4, 2020 14:17
Bhai Parmanand's image on a 1979 stamp. Source: https://en.wikipedia.org/wiki/Bhai_Parmanand

Bhai Parmanand’s image on a 1979 stamp. Source: https://en.wikipedia.org/wiki/Bhai_Parmanand

सिखों के नौवें गुरु तेगबहादुर जी जब गद्दी पर बैठे तो उन्होंने बाबा परागा के पोते मतिदास को अपना दीवान नियुक्त किया। धर्म रक्षा के लिए गुरु तेगबहादुर जी ने अपना बलिदान दे दिया तथा उससे चार दिन पूर्व उनके दीवान मतिदास के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए थे। जब गुरु गोबिन्द सिंह जी गद्दी पर आसीन हुए तो उन्होंने आनन्दपुर में एक विशाल सभा को सम्बोधित करते हुए कहा कि ब्रााहृण वंश के मतिदास जी के वंश का कोई व्यक्ति यदि यहां पर उपस्थित हो तो वह सामने आ जाए ताकि मैं उसे अपना दीवान बनाने का सौभाग्य प्राप्त कर सकूं। इस घोषणा को सुनकर उस वंश के गुरुबख्श सिंह उनके पास आ गए। गुरु गोबिन्द सिंह जी ने उन्हें अपना मंत्री नियुक्त किया तथा उन्हें गले से लगाते हुए कहा- “इनका और हमारा रक्त धरती में मिलकर बहा है, इसलिए यह हमारे भाई हैं। अब इस वंश को “भाई” नाम से पुकारा जाया करेगा।” इसी तेजस्वी तथा बलिदानी वंश में 4 नवम्बर, 1876 को करियाला में भाई ताराचन्द के घर भाई परमानन्द का जन्म हुआ। इनकी माता का नाम मथुरा देवी था। भाई जी कुछ बड़े हुए तो चकवाल के स्कूल में इनकी पढ़ाई आरंभ हुई। ये अभी मात्र चौदह वर्ष के ही थे कि इनकी माता जी का देहान्त हो गया।

भाई जी बचपन से ही बहुत प्रतिभा सम्पन्न थे। अपनी प्रतिभा के कारण स्कूल के विद्यार्थियों और अध्यापकों के बीच इनका सम्मान होने लगा। उन दिनों पंजाब में आर्य समाज का बहुत प्रभाव था तथा भाई जी भी निष्ठावान आर्यसमाजी बन गए। स्कूली अध्ययन की पुस्तकों से अधिक वे सत्यार्थ प्रकाश तथा पण्डित लेखराम के लेखों को पढ़ने में अधिक रुचि लेते थे। मिडिल की परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने डीएवी स्कूल में प्रवेश लिया। यहां वे उपदेशक कक्षा में भी भाग लेते थे जहां वेद तथा अन्य धार्मिक ग्रंथों की शिक्षा भी दी जाती थी। जब तक इन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की तब तक इनके ह्मदय में वैदिक मिशनरी बनने की भावना भी पक्की हो चुकी थी। मैट्रिक करने के बाद ये कुछ दिन बागवानपुरा के प्राइमरी स्कूल के मुख्याध्यापक रहे, फिर इन्हें डीएवी स्कूल के छात्रावास का सहायक अधीक्षक बनाया गया। इन्होंने दयानन्द कालेज के पक्ष में व्यक्तिगत रूप से सब जगह जा-जाकर प्रचार किया तथा इसी बीच बी.ए. की परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली। हालांकि इनकी इच्छा डाक्टर बनकर आर्य समाज की सेवा करने की थी। मगर बी.ए. करने के बाद ये एंग्लो संस्कृत स्कूल के मुख्याध्यापक बन गए। वहां एम.ए. करने का विचार बना तथा इन्होंने 1902 में पंजाब विश्वविद्यालय से एम.ए. की परीक्षा पास कर ली। इसके बाद मात्र पचहत्तर रुपए लेना स्वीकार करके डीएवी की आजीवन सदस्यता ग्रहण कर ली। इसी बीच इनका विवाह रावलपिंडी के देहरा बख्शिया के जमींदार रायजादा किशन दयाल की सुपुत्री भागसुधि से हुआ।

भाई जी डीएवी कालेज में इतिहास के प्राध्यापक थे। मगर इसके साथ-साथ वे पूरे भारत में भ्रमण करके आर्य समाज का सन्देश भी जनता तक पहुंचाते रहे। वे एक अच्छे वक्ता के रूप में प्रतिष्ठापित हो गए। इसी बीच पूर्वी अफ्रीका के लोगों ने किसी अच्छे उपदेशक को अफ्रीका भेजने की मांग की तो भाई जी को वहां भेजा गया। मई, 1906 में उन्होंने अफ्रीका के लिए प्रस्थान किया। कुछ दिन लामू में रहने के बाद वे 6 अगस्त, 1906 मोम्बासा पहुंचे। कुछ दिन वे नैरोबी में भी रहे। अफ्रीका में रहकर भाई जी ने लोगों में अपने ओजस्वी भाषणों के द्वारा धार्मिक और राष्ट्रीयता की भावना को जागृत किया। उनके भाषणों को सुनने के लिए हजारों भारतीय तो आते ही थे साथ ही अंग्रेज भी उन्हें सुनने के लिए पर्याप्त संख्या में आते थे। इसी प्रचार कार्य को करते-करते जब वे जोहान्सवर्ग पहुंचे तो उनका स्वागत करने के लिए उन दिनों अफ्रीका में रह रहे गांधी जी भी आए थे।

लाला लाजपत राय उन दिनों लन्दन में स्वतंत्रता के पक्ष में प्रचार कर रहे थे। उन्होंने भाई जी को लन्दन आने के लिए लिखा तथा उनके निमंत्रण पर भाई जी लन्दन चले गए। वहां महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के परम शिष्य श्यामजी कृष्ण वर्मा द्वारा स्थापित इण्डिया हाउस में वे लाला हरदयाल, सावरकर आदि से भी मिले। श्री वर्मा ने वहां पर “होम रूल” की स्थापना की थी।

सन् 1907 में 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के पचास वर्ष पूरे हुए तो लन्दन के समाचार पत्रों में यह शंका जताई जाने लगी कि जिस भांति “प्लासी के युद्ध” के सौ वर्ष के बाद विद्रोह हुआ था, उसी प्रकार इस बार भी अवश्य विद्रोह होगा। इस आशंका को देखते हुए सरकार की ओर से दमनचक्र आरंभ हो गया। उधर पंजाब में किसानों में क्रांति की भावना पैदा करने के आरोप में लाला लाजपतराय और अजीत सिंह को गिरफ्तार करके माण्डले जेल भेज दिया गया। लन्दन में एक सभा हुई जिसमें भाई जी ने इस दमनचक्र के विरुद्ध आवाज उठाई। सन् 1907 में ही भाई जी भारत वापस आ गए। अब अंग्रेज सरकार की इन पर कड़ी दृष्टि रहने लगी। उनके घर की तलाशी ली गई और बाद में उन्हें 10 मार्च, 1920 को गिरफ्तार कर लिया। मगर पन्द्रह हजार रुपए की जमानत पर छोड़ भी दिया गया। भाई जी औषधि विज्ञान का अध्ययन करने के लिए अमरीका चले गए। वहां उनकी भेंट अपने मित्र लाला हरदयाल से हुई जो “पोर्ट दि फ्रांस” नामक द्वीप में व्यक्तिगत कठोर साधना कर रहे थे। भाई जी ने उन्हें साधना छोड़कर पुन: देशसेवा के क्षेत्र में कार्य करने के लिए प्रेरित किया। अपने इसी प्रवास में उन्होंने करतारसिंह सराभा को भी प्रेरणा दी। दिसम्बर, 1913 को वे मुंबई पहुंचे। अगस्त, 1914 में प्रथम विश्व युद्ध आरंभ हो गया। भाई परमानन्द तथा गदर पार्टी के क्रांतिकारियों द्वारा एक बैठक बुलाई गई। इस बैठक में करतार सिंह सराभा, पण्डित परमानन्द, रासबिहारी बोस, शचीन्द्र नाथ सान्याल तथा गणेश पिंगले आदि क्रांतिकारियों ने भारत वर्ष को स्वतंत्र कराने के लिए सन् 1857 जैसी योजना बनाई। तय हुआ कि 21 फरवरी, 1915 को विभिन्न स्थानों पर एक साथ विद्रोह करके देश को स्वतंत्र करा लिया जाए।

सेना में बगावत कराने के लिए इन क्रांतिवीरों का आगरा, कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी, लखनऊ‚, लाहौर और फिरोजपुर आदि छावनियों से भी सम्पर्क हो चुका था। इधर क्रांतिकारियों ने बगावत की पूरी तैयारी कर ली। शस्त्र आदि का प्रबंध हो गया। क्रांतिकारियों में अपार उत्साह था। मगर क्रांति का बिगुल बजने से पूर्व ही गदर पार्टी के ही एक गद्दार कृपालसिंह ने लालच में आकर पुलिस को खबर देकर सारी योजना का भण्डाफोड़ कर दिया। पुलिस का दमनचक्र चला क्रांतिवीरों को पकड़ा जाने लगा। इस षड्यंत्र में कुल 61 अभियुक्तों को शामिल किया गया और इस षड्यंत्र के नेता करतार सिंह सराभा, भाई परमानन्द, विष्णु गणेश पिंगले, जगतसिंह, हरनाम सिंह करार दिए गए। न्याय का नाटक चला और भाई परमानन्द सहित चौबीस लोगों को फांसी की सजा सुनाई गई। बाद में 15 नवम्बर, 1915 को भाई जी सहित चौबीस में से 17 व्यक्तियों की फांसी की सजा निरस्त कर दी गई। भाई जी को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। काले पानी के कारावास का यह जीवन उनके लिए बहुत ही कष्टदायक था मगर भाई जी ने बड़े साहस और धैर्य के साथ इस जीवन को काटा। अन्तत: 20 अप्रैल, 1920 को उन्हें रिहा कर दिया गया। रिहा होकर जब वे लाहौर आए तो अपनी पत्नी की दयनीय दशा को देखकर बहुत द्रवित हुए, जो एक आर्य कन्या पाठशाला में मात्र सत्तर रुपए वेतन लेकर अपने दो बच्चों का पालन-पोषण कर रही थीं।

भाई जी की रिहाई से पूरे भारतवर्ष में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। उन्हीं दिनों भाई जी ने लाहौर में एक “केन्द्रीय हिन्दू युवक संघ” की भी स्थापना की तथा सन् 1930 में उन्होंने “आकाशवाणी” नाम से एक साप्ताहिक पत्र भी निकाला। इन्हीं दिनों शुद्धि आन्दोलन भी सक्रियता के साथ आगे बढ़ा जिसके मुख्य कर्णधार स्वामी श्रद्धानन्द तथा भाई जी थे।

गांधी जी की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति के दुष्परिणाम सामने आने आरंभ हो गए। 1 अगस्त, 1933 को सरकार ने साम्प्रदायिक निर्णय ले लिया। मुसलमान अपने लिए निरन्तर सुविधाओं तथा आरक्षण की मांगें करते रहे तथा हिन्दू मौन होकर यह सब देखते भर रहे। बड़ी चतुराई के साथ हिन्दुओं का बहुमत अल्पमत में बदल दिया गया। घोषणा के अनुसार विधान सभा की कुल 250 सीटों में से परिगणित जातियों सहित हिन्दुओं को केवल 105 स्थान ही प्राप्त होंगे। कांग्रेस की नीति के कारण उसके विरुद्ध कोई प्रस्ताव पारित न हो सका। अत: न चाहते हुए भी भारत विभाजन की भूमिका बन गई।

ब्रिटिश सरकार ने 3 जून, 1947 को एक घोषणा की कि भारत को दो भागों में विभाजित कर दिया जाएगा तथा ब्रिटिश सरकार 15 अगस्त, 1947 को सत्ता हस्तान्तरित कर देगी। भाई जी ने अपनी पूरी सामथ्र्य से इस स्थिति को टालने का प्रयास किया। मगर यह देश का दुर्भाग्य ही रहा कि वे इस आत्मघाती स्थिति को रोक नहीं सके। भारत विभाजन से भाई जी जैसे सच्चे राष्ट्रभक्त को इतना अधिक आघात पहुंचा कि वे अत्यधिक अस्वस्थ हो गए। उन्होंने खाना-पीना छोड़ दिया तथा 8 दिसम्बर, 1947 को सदा-सदा के लिए अपनी आंखें बन्द कर लीं।

Also Read

Erasing History? Bangladesh’s Path to a Troubled Transition

Explainer: Understanding the growing trend of attacks on Chinese Nationals in Pakistan 

Explainer: Quebec’s quest and struggle for independence from Canada

Explainer: Tracing the Accession of Jammu and Kashmir to India