राम मंदिर का आंदोलन भले ही समाप्त हो गया हो पर श्री राम का विषय कभी समाप्त नहीं होगा: सरसंघचालक मोहन भागवत(Interview)

WebDesk
Updated: October 10, 2020 18:10

RSS’ Sarsanghchalak Shri Mohan Bhagwat

An exhaustive interview of the Sarsanghchalak of Rashtriya Swayamsevak Sangh(RSS) conducted by “Hindi Vivek,” a Mumbai based prestigious monthly is being shared here. The interviewer’s name was Amol. The interview was originally done in Hindi. We are reproducing the original Hindi text of the interview:

अमोल – अयोध्या में श्रीराम मंदिर निर्माण के प्रारंभ के साथ ही राम जन्मभूमि आंदोलन समाप्त हो गया लेकिन क्या अब भगवान श्रीरामजी का विषय भी समाप्त हो गया?

श्री राम मंदिर का शिलान्यास 1989 में पहले ही हो गया था। 5 अगस्त 2020 को केवल मंदिर निर्माण कार्य का शुभारंभ हुआ। मंदिर निर्माण के लिए भूमि प्राप्त हो इसलिए श्री रामजन्मभूमि का आंदोलन चल रहा था। सर्वोच्च न्यायालय का इस पर निर्णय आ गया। उनके आदेश के अनुसार एक न्यास बनाया गया। उस न्यास को मंदिर निर्माण के लिए भूमि प्राप्त हो गई। इसके साथ ही राम मंदिर आंदोलन भी समाप्त हो गया। लेकिन भगवान श्रीराम का विषय कभी समाप्त नहीं होगा। श्रीराम भारत के बहुसंख्यक समाज के लिए भगवान हैं और जिनके लिए भगवान नहीं भी हैं, उनके लिए आचरण के मापदंड तो हैं ही। भगवान राम भारत के उस गौरवशाली भूतकाल का अभिन्न अंग हैं, जो भूतकाल भारत के वर्तमान और भविष्य पर गहरा प्रभाव डालता है। राम थे, हैं, और रहेंगे। जबसे श्रीराम प्रकट हुए हैं तब से यह विषय है और आगे भी चलेगा। श्री रामजन्मभूमि का आंदोलन जिस दिन ट्रस्ट बन गया उस दिन समाप्त हो गया।

अमोल- काशी विश्वनाथ और मथुरा श्रीकृष्ण जन्मभूमि मुक्ति का आंदोलन भी क्या भविष्य में चलाया जायेगा?

हमको नहीं पता, क्योंकि हम आंदोलन करने वाले नहीं हैं। राम जन्मभूमि का आंदोलन भी हमने शुरू नहीं किया, वह समाज द्वारा बहुत पहले से चल रहा था। अशोक सिंहल जी के विश्व हिंदू परिषद में जाने से भी बहुत पहले से चल रहा था। बाद में यह विषय विश्व हिंदू परिषद के पास आया। हमने आंदोलन प्रारंभ नहीं किया, कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में हम इस आंदोलन से जुड़े। कोई आंदोलन शुरू करना यह हमारे एजेंडे में नहीं रहता है। हम तो शांतिपूर्वक संस्कार करते हुए प्रत्येक व्यक्ति का हृदय परिवर्तन करने वाले लोग हैं। हिंदू समाज क्या करेगा, यह मुझे पता नहीं, यह भविष्य की बात है। इस पर मैं अभी कुछ नहीं कह सकता हूँ। मैं इतना बताना चाहता हूँ कि हम लोग कोई आंदोलन शुरू नहीं करते।

रवि- अयोध्या में भव्य श्रीराम मंदिर बनने के बाद क्या यह मंदिर केवल पूजा पाठ करने तक ही सीमित रहेगा या उससे कुछ और भी अपेक्षाएँ हैं?

पूजा पाठ करने के लिए हमारे पास बहुत मंदिर हैं। इस के लिए इतना लंबा प्रयास करने की हिंदू समाज को कोई जरूरत नहीं थी। वास्तविकता यह है कि ये प्रमुख मंदिर इस देश के लोगों के नीति एवं धैर्य को समाप्त करने के लिए तोड़े गए थे। इसलिए हिंदू समाज की तब से ही यह इच्छा थी कि ये मंदिर फिर से खड़े हो जाएँ। स्वतंत्र होने के बाद वे खड़े हो रहे हैं, लेकिन केवल प्रतीक खड़े होने से काम नहीं चलता। जिन मूल्यों एवं आचरण के वे प्रतीक हैं, वैसा बनना पड़ता है। मंदिर तो बनेगा, लेकिन हमें क्या करना है, उसका उल्लेख 5 अगस्त के दिन मैंने किया था। “परमवैभव संपन्न विश्वगुरु भारत” बनाने के लिए भारत के प्रत्येक व्यक्ति को वैसा भारत निर्माण करने के योग्य बनना पड़ेगा। अत: मन की अयोध्या बनाना तुरंत शुरू कर देना चाहिए। राम मंदिर बनते-बनते तक ही प्रत्येक भारतवासी के मन की अयोध्या भी खड़ी होनी चाहिए। मन की अयोध्या क्या है, इस बारे में भी मैंने रामचरितमानस के 2 दोहे बताए थे।

काम कोह मद मान न मोहा ! लोभ न छोभ न राग न द्रोहा !!

जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया ! तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया !!

राम में रमे हुए लोगों की अयोध्या ऐसी होती है। प्रत्येक भारतीय को अपने हृदय को ऐसा बनाना चाहिए।

दूसरा दोहा है –

जाति पांति धनु धरमु बड़ाई, प्रिय परिवार सदन सुखदाई !

सब तजि तुम्हहि रहई उर लाई, तेहि के ह्रदयँ रहहु रघुराई !!

यह बातें होती है और ये हम सभी के अभिमान के विषय हैं। उसका अभिमान होने में कुछ गलत नहीं है। लेकिन इसको लेकर भेद हो जाये, इसको लेकर स्वार्थ साधा जाए तो यह अनुचित है। ‘सब तजि’ का अर्थ यह नहीं है कि सन्यास धारण कर हिमालय में चले जाएँ। इसका अर्थ यह है कि जिसके साथ हमारा मन जुड़ जाता है, जिससे मोह हो जाता है, उसे छोड़ दें। अपने हृदय में केवल राम को ही समाहित कर लें, राम से ही जोड़ लें, यानि रामजी के उस आदर्श को, उस आचरण को, उन मूल्यों को अपने हृदय में धारण कर लें। ‘तेहि के हृदयँ रहहु रघुराई’ ऐसा जीवन बनाना, यह मुख्य काम है। उसके लिए मंदिर बनाने का आग्रह है। देश में इस संदर्भ में जागरूकता आनी चाहिए। इस भावना को सम्मान दिया जाना चाहिए। हमारे आदर्श श्री राम के मंदिर को तोड़कर, हमें अपमानित करके हमारे जीवन को भ्रष्ट किया गया। हमें उसे फिर से खड़ा करना है, बड़ा करना है, इसलिए भव्य-दिव्य रूप से राम मंदिर बन रहा है। पूजा पाठ के लिए मंदिर बहुत हैं।

रवि- प्रभु श्री राम हमारे आदर्श हैं इसके बावजूद देश में कुरीतियाँ और कुप्रथाएं हैं। उन्हें खत्म करने के लिए हमें क्या करना चाहिए? क्या हमारे धर्माचार्यों को भी इसमें योगदान देना चाहिए ?

धर्माचार्यों को कैसा काम करना चाहिए? किस तरह से योगदान देना चाहिए? यह उपदेश मैं नहीं दे सकता। परंतु समाज का आचरण शुद्ध होना चाहिए। इसके लिए जो व्यवस्था है उसमें ही धर्म की भी व्यवस्था है। धर्म की व्यवस्था तय करती है ‘आचार धर्म’। जैसे सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, स्वाध्याय, संतोष, तप, यह शाश्वत धर्म है। सदा सर्वदा, कहीं भी- कभी भी। परंतु इसका आचरण करना देश काल परिस्थिति पर निर्भर करता है। व्यक्ति विशेष पर भी यह निर्भर करता है।

एक बहुत ही पुरानी राजा शिवि की एक कथा है। बाज से अपनी जान बचाने के लिए एक कबूतर राजा शिवि की शरण में आता है और उनके पीछे छुप जाता है। शिबि राजा सोचते हैं कि यह कबूतर मेरी शरण में आया है इसलिए उसे बचाना मेरा धर्म है। फिर उसके पीछे-पीछे बाज भी आता है और कहता है कि वह कबूतर कहाँ है? उसे मुझे खाना है। राजा कहते हैं, उसकी रक्षा करना मेरा धर्म है। तब बाज कहता है कि प्रकृति के अनुसार मेरा धर्म यह है कि उसे खाकर मैं अपना पेट भरूँ। तुम मुझे भूखा रखकर अधर्म कर रहे हो, उसके प्राणों की रक्षा करके तुम अपने धर्म का पालन नहीं कर सकते। अब राजा का भी एक धर्म है, कबूतर का भी एक धर्म है और बाज का भी एक धर्म है। इन तीनों का संतुलन साध कर उस परिस्थिति में राजा ने कहा कि ठीक है तुम्हारा भी पेट भर जाए इसलिए मैं अपने धर्म के पालन के लिए तुम्हें अपना मांस देता हूँ।

धर्म का आचरण देश, काल, परिस्थिति और व्यक्ति के स्वभाव को ध्यान में रखकर कर्तव्य के रूप में निर्धारित जो करते हैं, उसको कहते हैं ‘आचार धर्म’। हमारे यहां पुरातन स्मृतियाँ हैं और वह भी एक नहीं है, वह भी बदलती रही हैं। कहते हैं आखिरी स्मृति देवल स्मृति होगी। जिसमें महिलाओं को शिक्षा एवं अन्य प्रावधान हैं। जो जबरदस्ती भगाए गए हैं उनको वापस लाने का भी प्रावधान है। जिन बातों की आज हम आवश्यकता महसूस करते है, उस समय वैसे ही उन लोगों ने की होगी। वही बातें इसमें लिखी होगी। परंतु उसके बाद दसवीं सदी के आसपास देवल स्मृति समाप्त हो गई। इसके बाद 1000 साल तक कोई स्मृति ही नहीं आई। इसलिए चाहे जैसे लोग चल रहे हैं। सारे समाज का अवलोकन करके भारतीय धर्म के सभी धर्माचार्यों को मिलकर आज के समय में सभी भारतीयों के अनुकूल होगी, आचरण में सरल होगी, उनका जो परंपरागत आदर्श है, जिसको दुनिया चाहती है, ऐसा जीवन जीने में उसको समर्थ बनाएगी, ऐसी एक नई आचार व्यवस्था धर्माचार्यों को देनी चाहिए। उसकी आवश्यकता बहुत तीव्रता से प्रतीत होती है।

अमोल- अभी आपने स्मृतियों के विषय को स्पर्श किया, कई धर्मग्रंथ व स्मृतियाँ ऐसी हैं, जिनको समय के साथ परिवर्तित करना अति आवश्यक है। इस विषय पर आप की क्या राय है?

हम यानी भारतीय समाज ग्रंथों पर नहीं चलता। यदि ग्रंथों पर चलता होता तो एकनाथ महाराज रामेश्वरम जाते समय गधे को गंगा का पानी नहीं पिलाते। ग्रंथों में कई ऐसी बातें हैं जो कालबाह्य (out of date ) हैं। भारतीय समाज जो धर्म पर पूरी श्रद्धा रखता है, ग्रंथों की उन बातों को छोड़कर चल रहा है। और कोई उसे धर्म बाह्य नहीं करता या कोई उसे श्राप नहीं देता है। क्योंकि लोग जानते हैं कि पुस्तकीय शब्द देश-काल-परिस्थिति के अनुसार बदलते रहते हैं। उसका नया अर्थ बताना पड़ता है या शब्दों को बदलना पड़ता है। अपने जो ग्रंथ हैं उनमें से ‘भगवद्गीता’ में बिल्कुल मिलावट नहीं है, ऐसा कह सकते हैं। वेदों में मिलावट नहीं हैं क्योंकि वे मौखिक रूप से सुरक्षित हैं और उपनिषदों में भी मिलावट नहीं है। बाकी ग्रंथों में से महाभारत की तो प्रस्तावना में ही कहा है, जब पहली बार कथा बताई गई है वह 8800 श्लोकों की थी और अभी जो पूर्ण ग्रंथ उपलब्ध है वह लगभग एक लाख श्लोकों का है। शेष सारे श्लोक बाद में जुड़े हैं। उनमें से जो वर्तमान समय में काल बाह्य है उन्हें निकालना चाहिए और जो काल-सुसंगत हैं व हमारे मूल्यों से सुसंगत हैं, इन दोनों बातों को रखना चाहिए। ऐसा किसी ने सोचा तो कुछ गलत विचार है, ऐसा नहीं कह सकते हैं। लेकिन यह करने के सारे अधिकार हमारे धर्माचार्यों के हैं, वह यह कर सकते हैं। अन्य लोगों को इसमें हाथ नहीं डालना चाहिए किंतु अन्य लोग धर्माचार्यों को हाथ जोड़कर आग्रह कर सकते हैं कि कृपया ऐसा कीजिए। कई लोग ऐसा चाहते भी है, अनेक लोग मुझसे भी मिलते रहते हैं। समाज के बड़े-बड़े, अच्छे लोग जो राजनीति में नहीं है, जिनका कोई स्वार्थ नहीं है, अगर उनको यह लगता है कि ऐसा नहीं होना चाहिए तो फिर ऐसा नहीं होना चाहिए।

रवि- हमारे समाज में अनेक उपासना पंथ हैं, यदि ये सभी एकत्रित आ जाये तो समाज भी बलशाली होगा। क्या उसके लिए राम मंदिर सभी के लिए आदर्श के रूप में विद्यमान हो सकता है?

क्यों नहीं? पूरे रामायण में और रामचरितमानस में किसकी पूजा करें, यह नहीं बताया गया। यही बताया गया है कि सत्य पर चलो, अन्याय-अत्याचार मत करो, अहंकार मत करो। पूजा पद्धितयाँ अनेक हो सकती हैं और हम सभी अपनी- अपनी पूजा पद्धति को लेकर सुख-पूर्वक चल सकते हैं। दूसरों की पूजा पध्दति को अपनी पूजा पद्धति जैसा ही सत्य मानकर व स्वीकार कर चल सकते हैं । आपस में मेल मिलाप रखने वाली बातों को मानकर चलें तो समाज, धर्म और देश का कल्याण हो जायेगा। हमारे संविधान में जो आधारभूत तत्व हैं उनमें भी यही सारी बातें हैं। उसकी प्रस्तावना (preamble) में भी यही सब लिखा है। संविधान में उल्लिखित प्रस्तावना, नागरिक कर्तव्य, नागरिक अधिकार और नीति निर्देशक तत्व, यह चारों प्रमुख बिंदु भी हमें यही बताते हैं। हमारे देश में विविधता पहले से है। राम के समय का विचार करें तो उस समय कौन से संप्रदाय रहे होंगे? प्रमुख रुप से दो ही दिखते हैं – ‘शैव और वैष्णव’। शिवजी तो परंपरा से ही राम जी का ध्यान करते हैं और राम हर जगह शिवजी की पूजा करते हैं। सब के अलग-अलग तरीके हैं। लेकिन आपस में जो एकात्मता व आत्मीयता है, मिलजुल कर चलने का जो निश्चय है, वही रामायण का संदेश है। वही हमारी सारी परंपराओं का संदेश है। प्रत्येक व्यक्ति का रूप अलग-अलग हो सकता है, उसका बाह्य रूप अलग है । लेकिन सब में एक ही सत्य होने के कारण सब एक हैं। यही हमारा संदेश है। रामायण में भी वही है। हमारे यहां जितनी भी पूजा पद्धति यहाँ है, अगर वह इस आदर्श को लेकर चलेंगी तो सबका विकास होगा और देश का भी विकास होगा और समाज में भी शांति व भाईचारा बना रहेगा।

रवि- राम मंदिर का आदर्श देखकर हिंदू धर्म के अंतर्गत आने वाले सभी संप्रदाय व पंथ एकजुट हो सकते हैं और समाज भी बलशाली हो सकता है लेकिन हमारे देश में मुस्लिम और ईसाई मत को मानने वाले भी हैं, उनको हमारी विचारधारा में लाने के लिए क्या प्रयास करना चाहिए?

उनको लाना क्या है? उन्हें केवल इतना ही करना है कि उससे अलग जाना नहीं है। रसखान का नाम तो आपने सुना है ना, वो मुसलमान थे, उन्होंने इस्लाम छोड़ा नहीं था, परंतु उनका कृष्ण पर कितना सुंदर काव्य है। वह कृष्ण भक्त थे। शेख मोहम्मद थे, वह विट्ठल के भक्त थे। ये कोई बहुत पुरानी बात नहीं है। हमारे यहां श्री रामकृष्ण परमहंस ने इस्लाम-ईसाईत सहित सभी उपासना पद्धतियों की प्रत्यक्ष उपासना करके कहा कि सभी धर्म-संप्रदाय एक ही जगह पहुँचते हैं। रमण महर्षि से जब पाल बरन्टन (Paul Brunton) ने कहा कि मुझे लगता है कि मैं हिंदू बन जाऊँ तो रमण महर्षि ने कहा ‘नहीं तुम ईसाई धर्म में जन्में हो तो अच्छे ईसाई बनो। तुमको भी वही फल मिलेगा जो एक हिंदू को अच्छा हिंदू बनने पर मिलता है, यह हमारे यहाँ सदा हुआ है। समय-समय पर कट्टरपंथी लोग इनको अलग दिशा में ले जाने का प्रयास करते हैं। उस प्रयास को शिवाजी महाराज ने रोका। उनकी नौ सेना में मुसलमान भी थे, सिद्दी भी थे।

महाराणा प्रताप की सेना में कई मुसलमान थे जिन्होंने अकबर को हल्दीघाटी में रोका। इतिहास के हर मोड़ पर सब लोग साथ खड़े थे। जब भारत एवं भारत की संस्कृति के प्रति भक्ति जागती है व भारत के पूर्वजों की परंपरा के प्रति गौरव जागता है, तब सभी भेद तिरोहित हो जाते हैं। जिनके स्वार्थों पर आघात होता है, वे लोग बार-बार अलगाव व कट्टरता फैलाने का प्रयास करते हैं। वास्तव में हमारा ही एकमात्र देश है जहाँ पर सब के सब लोग बहुत समय से एक साथ रहते आए हैं। सबसे अधिक सुखी मुसलमान भारत देश के ही हैं। दुनिया में ऐसा कोई देश है जहाँ पर उस देश के वासियों की सत्ता में दूसरा संप्रदाय रहा हो जो उस देश के वासियों का नहीं और वह अभी तक चल रहा है? ऐसा कोई नहीं। वह केवल हमारा देश ही है। इस्लाम के आक्रमण से कुछ समय पहले मुसलमान भारत में आये। आक्रमण के साथ बहुत अधिक संख्या में आए। बहुत सारा खून-खराबा, संघर्ष, युद्ध, बैर का इतिहास रहा है। फिर भी हमारे यहाँ मुसलमान हैं। हमारे यहाँ इसाई हैं। उनके साथ किसी ने कोई बुरा नहीं किया। उन्हें तो यहाँ सारे अधिकार मिले हुए है, पर पाकिस्तान ने तो अन्य मतावलंबियों को वे अधिकार नहीं दिए। हिंदुस्थान का बँटवारा कर मुसलमानों के रहने के लिए पाकिस्तान बना। उस समय की स्थिति के अनुसार भारत में हिंदुओं की ही चलेगी और किसी की नहीं चलेगी, जाना है तो अभी चले जाओ और अगर रहना है तो हिंदू के नीचे ही रहना पड़ेगा ऐसा हमारे संविधान ने नहीं कहा। हमारी संविधान सभा में सब प्रकार के लोग थे। बाबासाहेब आंबेडकर भी यह मानते थे कि जनसंख्या की अदला-बदली होनी चाहिए। परंतु उन्होंने भी यहाँ जो लोग रह गए उन्हें स्थानांतरित (Transfer ) करना पड़े, ऐसा संविधान नहीं बनाया। उनके लिए भी एक जगह बनाई गई। यह हमारे देश का स्वभाव है और इस स्वभाव को हिंदू कहते हैं। हम किसकी पूजा करते हैं, उससे हिंदू का कोई संबंध नहीं है। धर्म जोड़ने वाला, ऊपर उठाने वाला, समाज को एक सूत्र में पिरोने वाला होना चाहिए। भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार के सुख जिसके आचरण करने से मिल सकते हों ऐसा धर्म हो। अर्थ और काम का नियमन करते हुए पूरे समाज को ठीक से चलाने वाला धर्म है। पूजा-पद्धति आपकी कोई भी हो। राष्ट्रीयता का पूजा-पद्धति से कोई संबंध नहीं है। पहले-पहले जब पाकिस्तान की बात चली थी तब जमाते इस्लामी के चीफ थे मदनी साहब। उन्होंने अपनी पुस्तक में लिखा है कि कौम और रिलिजन का कोई संबंध नहीं है। जो लोग यह कह रहे थे कि जो मुसलमान हैं वे हिंदुस्तान के नहीं हैं यह गलत है।

अत: बीच-बीच में अगर कट्टरता फैलती है तो उस वातावरण में भटकना नहीं, इतना करना पड़ेगा। और उसके लिए हम एक राष्ट्र हैं, सनातन काल से चलते आए हुए पुरातन राष्ट्र हैं, हम हिंदू राष्ट्र हैं। कुछ बदलना नहीं पड़ता केवल कुछ बुराइयाँ छोड़नी पड़ती हैं, संकुचितता छोड़नी पड़ती है। यह सब संभव है और इन बातों को मानने वाले हमको मिलते भी हैं। ईसाई और मुसलमान दोनों मिलते हैं, अच्छे-अच्छे पढ़े-लिखे उच्च पदस्थ मुसलमान भी मिलते हैं।

अमोल- भारत में 130 करोड़ हिंदू रहते हैं। भारत में मुसलमान और ईसाई दोनों समुदायों के लोग भी रहते हैं, क्या वह इस बात को मानेंगे और मानेंगे तो कैसे?

देखो यह सत्य है, मानना या नहीं मानना यह मर्जी की बात है, लेकिन यह सत्य है। सत्य को जो मानता है उसका सब ठीक चलता है। सत्य को कब तक नहीं मानेंगे? सत्य की अपनी ताकत है और हम कुछ नहीं करेंगे तो भी लोगों को जीवन में अवश्य ऐसे अनुभव आएंगे कि, हाँ- हम हिंदू हैं और हम भारतीय हैं। हम मुसलमान हैं लेकिन हम अरबी अथवा तुर्की नहीं है। हम भारतीय हैं और हम भारतीय अर्थात क्या हैं, इसका विचार करना पड़ता है। हम जब-जब इसका विचार करते हैं तब यह ध्यान में आता है कि भारत का अर्थ हिंदू है। लेकिन इसको कैसे मनाना है। तो वहाँ से प्रबोधन होना चाहिए। यह उनके मानने की बात है। मनवाने की बात नहीं है। क्या हम हाथ में लाठी लेकर मनवाएंगे ? हम ऐसा नहीं करेंगे। हृदय परिवर्तन होना चाहिए। इस का एक तरीका है कि हम सोचें कि हमारे पूर्वज कौन थे? हम किस भूमि से जुड़े हैं? मुसलमान होने के बाद भी हमारे पास कव्वाली क्यों है जो अन्य इस्लामिक देशों में नहीं चलती? अखंड भारत की सीमा के बाहर क़व्वाली आज भी नहीं चलती है। कब्र- मजारों की पूजा अन्य जगह नहीं चलती है। पैगंबर साहब का जन्मदिन ईद-ए-मिलाद-उन-नबी वह सेलिब्रेशन के रूप में अखंड भारत की सीमा में ही चलता है। अल्लाह एकमेव और सर्वश्रेष्ठ होने के नाते अन्य किसी का भी, पैगम्बर साहब का भी उत्सव नहीं मनना चाहिए। ऐसा बाहर के लोग मानते हैं। इसलिए अन्यत्र कहीं भी व्यक्ति विशेष के रुप में इसकी मान्यता नहीं है। अल्लाह के अतिरिक्त कौन है, ऐसा वे लोग कहते हैं। लेकिन हमारे यहाँ चलता है क्योंकि हमारा एक स्वभाव है। परंपरा से आया है, उसके प्रभाव में हम चल रहे हैं, यह सत्य है। हमारे पूर्वज वही थे, यह सत्य है। भारत के बाहर हमारी कोई प्रतिष्ठा नहीं है। हम भारतीय हैं इसीलिए हमारी प्रतिष्ठा है। भारत की प्रतिष्ठा से हमारी प्रतिष्ठा जुड़ी हुई है। बैंगलोर से यात्रा करते समय मुझे रेलवे के टीसी मिले थे। उन्होंने मुझे बताया था कि देखो हमारे यहाँ ऐसा है कि मरने पर जब तक कफन में वतन की मिट्टी नहीं डाली जाती तब तक जन्नत नसीब नहीं होती। जब ओसामा बिन लादेन को समुद्र में दफन कर दिया गया था तो इस पर काफी हो-हल्ला मचा था, उसका एक कारण यह था। वतन की मिट्टी नहीं डाली। हम अगर बिना भारत की मिट्टी के मर गए तो हमें जन्नत भी नसीब नहीं होगी। इस मिट्टी से हम जुड़े हुए हैं। यह सब सत्य है पर अगर हिंदू यह बताएंगे तो वह पूछेंगे कि इसमें आपका क्या फायदा है। इसलिए हिंदू को इस स्थिति में रहना पड़ेगा कि आप यह मानते हो या नहीं मानते हो, इससे हमारा कुछ नहीं बिगड़ता और हमको इसकी जरूरत भी नहीं है। यह कोई हमारी ज़रूरत या मजबूरी नहीं है कि हम बता रहे हैं। लेकिन यह सत्य है कि रिश्ते से आप हमारे भाई हैं। वो भाईचारा हमें कहलवाता है कि हम भाई हैं, मान लो। हिंदू को इस स्थिति में आना पड़ेगा कि कुछ कहने करने की जरूरत नहीं है। वह अपनी सुरक्षा खुद कर सकता है, फिर भी वह कह रहा है कि आप हमारे हो क्योंकि उसके मन में स्नेह है। यह स्थिति आने के बाद ही हिंदू कहें, तब तक ना कहे। वर्ना वे उसे मजबूरी मानेंगे या वे सौदा करना चाहेंगे। उस से काम नहीं होगा, दोनों तरफ से जब प्रक्रिया चलेगी तभी ठीक होगा। हिंदू समाज को इस स्थिति में आना होगा। वह सामर्थ्य संपन्न हो कि आँख टेढ़ी करके कोई देख नहीं सके और वह इसलिए नहीं कि किसी को कोई सबक सिखाना है बल्कि इसलिए कि उसकी बात पर विश्वास हो सके।

अमोल- कोरोना के संकटकाल में हमें आत्मनिर्भर भारत बनाने का मंत्र मिला है। तो आत्मनिर्भर भारत को साकार करने हेतु ऐसे कौन से विषय हैं जिन्हें हमें आत्मसात करना चाहिए?

पहले तो हमें स्वयं के अंदर झांकना चाहिए। हमारी आत्मा क्या है? हम कौन हैं? चाणक्य नीति में कहा गया है –

क: काल: कानि मित्राणि को देश: कौ व्ययागमौ |

कश्चाहं का च मे शक्ति- रिति चिन्त्यं मुहुर्मुहु ||

जिस व्यक्ति को या समाज को प्रगति करनी है, विजय पानी है, उसको इन 6 बातों का प्रतिदिन विचार करना चाहिए। ऐसा समाज का नियम है। काल यानि समय कैसा चल रहा है? मेरे मित्र कौन है? मेरे आय और व्यय की व्यवस्था यानि आर्थिक परिस्थिति कैसी है? देशों की स्थिति कैसी है? लेकिन मुख्य बातें दो हैं जो इन सब का मूल है। मैं कौन हूँ और मैं क्या हूँ? इसके अलावा मेरी शक्ति किन बातों में है? इसको जानने के लिए अपना वर्तमान और भूतकाल भी पता होना चाहिए। हम जो हैं, वह अभी हैं कि नहीं? या कोई स्वाँग ओढ़े बैठे हैं। जिन बातों में हमारी शक्ति है हम उनका संवर्धन कर रहे हैं या नहीं? यह देखना पड़ता है, इस पर हमें ध्यान देना पड़ता है। अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने वाले एक सुशिक्षित परिवार के 12वीं कक्षा की एक विद्यार्थी ने मुझसे कहा कि आजकल तो हमें हमारा सही इतिहास सिखाते ही नहीं। हमें हमारे भारतीय इतिहास के बारे में कुछ पता नहीं। हमारे इतिहास की पुस्तकों में भी कुछ मिलता नहीं है। ‘1857 के भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ पर उसे एक निबंध लिखना था परंतु उसे इसके बारे में कुछ पता ही नहीं था। इससे संबंधित पुस्तकों के बारे में भी उसे कुछ पता नहीं था। पुस्तकालयों में भी उसे संबंधित पुस्तकें नहीं मिली। फिर मैंने उसे दो-तीन पुस्तकें बताईं। इस स्थिति से हमें बाहर आना पड़ेगा। सबसे पहले हम कौन हैं, वह पहचानना पड़ेगा। दूसरी बात हम जो हैं उसमें गौरव रखना पड़ेगा। पहला जो है उसे मैं कहता हूं “आत्म भान”, दूसरा जो है उसे “गौरव भाव”। प्रत्येक में कुछ कमियाँ होती हैं , हमारे में भी कुछ कमियां होंगी, वह कमियां दूर करना हमारा काम है। वैसे कमियाँ किसमें नहीं होती? हमें हमारी विशेषताएँ (प्लस पॉइंट) क्या हैं उसका गौरव होना चाहिए। जिसमें आत्मगौरव या स्वाभिमान नहीं है, वह उन्नति नहीं कर सकता। वह सोचेगा भी तो छोटा ही सोचेगा। वह ज्यादा से ज्यादा कहेगा कि मैं राजा की नौकरी करूँगा अर्थात बड़ी नौकरी, सरकारी नौकरी। मैं नौकरी ही करूँगा। मैं राजा बनूंगा, वह ऐसा क्यों नहीं सोचता? क्योंकि उसमें आत्मगौरव नहीं है और मैं यह कर सकता हूँ , यह आत्मविश्वास होना चाहिए। इन सारी गौरवान्वित करने वाली बातों को देने वाले संस्कार शिक्षा से, सामाजिक वातावरण से एवं पारिवारिक प्रबोधन से मिलना चाहिए। यह नित्य चलते रहने की बात है। कुछ बातें व्यवस्था करती है और कुछ बातें हमको समझकर करनी पड़ती हैं । समाज में जब दोनों प्रकार से प्रयास होते हैं तो समाज में आने वाली पीढ़ी विजय प्राप्त करती है। इसलिए इंग्लैंड के बारे में कहा था कि the battle of waterloo was won on the playground’s of Harrow and Eton , क्योंकि इंग्लैण्ड में घरों में, सामाजिक वातावरण में, शिक्षा में, सारे संस्कार व्यवस्था में अनौपचारिक रूप से मिलते हैं। वह स्वभाव बन गया है। इसलिए नेपोलियन को इंग्लैंड ने रोका। हिटलर को इंग्लैंड ने रोका। वैसे ही हमें भी करना है।

अमोल- आपके वक्तव्य में निरंतर तीसरे विकल्प की बात आती है। यह तीसरा विकल्प क्या है? इसका क्रियान्वयन किस प्रकार से हो सकता है?

भारत का एक बुनियादी स्वभाव है, उसके आधार पर अर्थात भारत की आत्मा के आधार पर जो होगा वह आत्मनिर्भर होगा।

आत्मनिर्भर यानी केवल केवल स्वावलंबी या विजयी ऐसा नहीं है। स्वाबलंबी में “स्व” महत्व की बात है। इतनी सारी चीनी मिले हैं, जिनसे हम बहुत सारी शराब बनाकर निर्यात (Export) बढ़ा सकते हैं। लेकिन वह आत्मनिर्भरता नहीं होगी क्योंकि भारत की प्रकृति में शराब बनाना नहीं है। भारत की प्रकृति मूलतः क्या है कि “वो एकात्म है और समग्र है”। यानी संपूर्ण विश्व में अस्तित्व की एकता को मानता है। अगर मेरा कुछ होना है तो पूरे विश्व का भी कुछ होना है। और अगर विश्व का ठीक होगा तो मेरा भी ठीक होगा। मेरा अकेले का ठीक होगा और विश्व ऐसे ही पड़ा रहेगा, ऐसा कभी नहीं हो सकता। क्योंकि हम सब एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। बाहर से अलग-अलग दिखते हैं परंतु हैं एक ही के अविष्कार। इसलिए हम टुकड़ों में विचार नहीं करते, हम सभी का एक साथ विचार करते हैं।

दूसरी बात है हम किसी भी चीज का विचार करते हैं तो उसका आगा, पीछा और सर्वत्र होने वाले उसके परिणाम को ध्यान में रखकर ही विचार करते हैं। इसलिए हम कभी भी अतिवादी (Extremist) नहीं हो सकते हैं। हम हमेशा संतुलन (balance) साध कर एक मध्यम मार्ग पर चलते हैं। मध्यम मार्ग को ही धर्म कहा गया है। यह धर्म की सोच है और यह सत्य पर आधारित है कि अस्तित्व एक है, दिखता भले ही विविध है। अभी जो प्रचलित व्यवस्था है वह बुनियादी रुप से पश्चिम की है। पश्चिमी दिशा से जो चिंतन आया उनके चिंतन के आधार है कि प्रत्येक व्यक्ति अलग है, उसका शरीर, मन और बुद्धि भी अलग है। समाज का हित अलग है, व्यक्ति का हित अलग है और सृष्टि का हित अलग है।सुख सबको चाहिए। सुख के सुख की संकल्पना भारत में भी है और वहाँ भी है। लेकिन शरीर का सुख चाहिए या मन का? वहां प्रधान्य शरीर के सुख का है। शरीर के सुख के लिए जितना आवश्यक है उतना मन और बुद्धि का सुख चाहिए। हमारे यहां का नियम है कि सब का सुख चाहिए इसलिए सब के सुख को कुछ ना कुछ संयम रखना पड़ेगा। वो कहते हैं ऐसा कुछ जरूरी नहीं। एक्स्ट्रीम की तरफ जाओ। व्यक्ति का सुख चाहिए तो अस्तित्व के लिए संघर्ष (struggle for existence ) ही होगा। उससे झगड़ा होता है तो दुख उत्पन्न होता है, व्यक्ति पर दबाव तो फिर समाज का सुख देखते हैं तो फिर व्यक्ति समाज में मात्र मशीन का पुर्जा है, इससे स्वतंत्रता नहीं आती। डॉक्टर आंबेडकर साहब ने संसद में कहा स्वतंत्रता और समता एक साथ लाना है तो बंधुभाव चाहिए। बंधुभाव का कारण क्या है – कि हम सब एक हैं। हमें एक होना नहीं है, हम हैं ही। हम भूल गए हैं, हमको याद दिलाना है। यह बुनियादी बात होने के कारण हमने हमारे यहाँ विकास किया। अध्ययन करने वालों का शोध (research ) है कि विश्व की अर्थव्यवस्था में 1000 वर्ष तक हम नंबर वन पर रहे। उस समय विश्व के बहुत बड़े भूभाग पर हमारा प्रभाव तो था ही हमारा साम्राज्य भी बहुत बड़ा था। लेकिन ऐसा सब होने के बावजूद भी हमने दुनिया में जाकर किसी भी देश को समाप्त कर दिया ऐसा नहीं हुआ है। हमारे यहाँ के ढ़ाका की मलमल अभी भी कंप्यूटर युक्त मशीनों से बनना कठिन है, इतनी अच्छी तकनीक (technology ) हमारे पास थी। लेकिन हमारे यहां पर्यावरण की हानि नहीं हुई, क्योंकि हमने सबका हित एक साथ साधा। उसके लिए सबके स्वार्थ की दौड़ को संयमित किया। सबको स्वतंत्रता मिली लेकिन सबको यह नहीं मिला कि अपनी स्वतंत्रता का उपयोग दूसरों को परतंत्र करने में कर सकें। हमारे यहां किसान अपने बीज खुद बनाता था। हमारा किसान बीज के लिए कहीं नहीं जाता था। खाद अपना बनाता था। अभी देखिए, जितने भी टूथपेस्ट हैं कोई टूथपेस्ट आपको बताती है कि वह सारे जंतुओं को मार देगी। उनमें ऐसे रसायन (chemicals ) है जो उन्हें मार देते हैं। लेकिन दातुन क्या काम करती है। दातुन मारती नहीं है उसे रेगुलरेट करती है। यह जो देसी कीटनाशक बनते हैं वह कीडों को मारते नहीं बल्कि उन्हें नियंत्रित करते हैं। उनका भी जीवन है ना। यह दृष्टिकोण हमारे यहां रग-रग में है।” विश्व में सारे संघर्ष समाप्त करने हैं, विश्व में सबकी उन्नति एक साथ करनी है, पर यह हो नहीं सकता इस कगार पर विश्व पहुँचा है। अभी तक सबने दो प्रयोग करके देखे हैं। पर सफल नहीं हुए । व्यक्ति को महत्व दिया, नहीं हुआ, समाज को दिया, नहीं हुआ। ईश्वर को मानकर चले, ईश्वर छोड़कर भी चले लेकिन नहीं हुआ। लोकमत के आधार पर चले, वैज्ञानिक आधार पर चले लेकिन नहीं हुआ। तीसरा पर्याय कहाँ है? ये तीसरा पर्याय हमारे यहाँ है। ये दोनों काम पश्चिम ने करते समय तीसरे को जोड़ने वाला चौथा क्या है, यह नहीं देखा। हमारे यहाँ पहले देखा गया। “इसलिए अर्थ और काम को अनुशासन में रखकर मोक्ष की ओर चलाने वाला धर्म हमारे पास है। शरीर-मन-बुद्धि को अनुशासन में रख कर आत्मा परमात्मा की ओर उसको ले जाती है और इसलिए व्यक्ति समष्टी और सृष्टि, तीनों की उन्नति और इन सब का भाव परमात्मा की ओर। यह बेसिक दृष्टि है और इसके आधार पर हमको सारे जीवन की पुनर्रचना करनी होगी। सोचना भी पड़ेगा, रिसर्च भी करना पड़ेगा। यह एक मूलभूत (basic ) दृष्टि है जो सनातन काल से चली आ रही है। यह शाश्वत है। इसका कैसा प्रस्तुतीकरण (expression ) होगा, आज का खाका या स्वरूप (blueprint ) क्या होगा, उसको आज के संदर्भ और परिस्थिति में बैठा कर सोचना होगा। आज ऐसे प्रयोग अनेकों स्थान पर हो रहे है, अभी तो सरकार ने भी ऐसे कुछ प्रयोग किए हैं हम भी कर रहे हैं तो उन को आगे बढ़ाना पड़ेगा।

रवि- आपने बताया कि बदलाव के लिए नए-नए प्रयोग चल रहे हैं, इसमें शिक्षा का भी एक महत्वपूर्ण स्थान रहेगा। शिक्षा में धर्म का स्थान क्या होना चाहिए। आपकी इसके बारे में राय क्या है?

धर्म का स्थान सर्वत्र है। अधर्म तो कहीं नहीं होना चाहिए। अगर मैं कहूं कि शिक्षा में धर्म होना चाहिए तो लोग खूब चिल्लायेंगे। लेकिन अगर मैं कहूँगा कि अधर्म नहीं होना चाहिए तो कोई भी नहीं चिल्लाएगा। धर्म यानी संप्रदाय – पूजा नही नागरिक अनुशासन (civic discipline), नागरिक कर्तव्य (civic responsibility ) यह धर्म है। भारत के प्रत्येक बच्चे को अपने संविधान के 4 चैप्टर सबको बताने चाहिए। विस्तार में यह क़ानून (law ) के विद्यार्थी पढ़ेंगे। लेकिन भारत के बच्चों को जब वे जीवन के प्रारंभिक चरण (formative stage ) में होते हैं तब उनको संविधान की प्रस्तावना, संविधान में नागरिक कर्तव्य, संविधान में नागरिक अधिकार और अपने संविधान के मार्गदर्शक अर्थात नीति निर्देशक तत्व, ये सब ठीक से पढ़ाने चाहिए। क्योंकि यही धर्म है। हम सब लोग साथ चलें और विविध लोग एकत्र रहें, भारत की उन्नति हो और उसी समय भारत की उन्नति से विश्व को कष्ट ना हो यह मन में रखकर अपने संविधान की रचना की गई है और रचना करने वाले सब हमारे लोग थे। उनके सामने जो आदर्श थे वे संविधान की मूल प्रति के चित्रों में व्यक्त होता है, संविधान निर्माण के समय एक-एक शब्द पर जो चर्चा हुई है, वह अगर हम पढ़ते हैं, तो उन का मन हमारे ध्यान में आता है कि आज के प्रारूप (format ) में ही हमारा यह सनातन धर्म ही व्यक्त हो रहा है। हमें उसे यह सिखाना है। हमें पढ़ना है लेकिन पैसे के लिए नहीं। लेकिन पढ़ाई आपको भूखा रखने के लिए भी नहीं है। अगर आप पढ़ोगे तो अपना जीवन ठीक से चला सकोगे इतना आत्मविश्वास होना चाहिए। लेकिन केवल आपका जीवन ठीक चले इसके लिए शिक्षा नहीं है। सबका जीवन आप ठीक चला सकें इसलिए आपको शिक्षित होना है। यह दृष्टि वह प्राप्त कर ले, इसके लिए घर के संस्कार भी उपयुक्त हों, विद्यालय का पाठ्यक्रम, शिक्षकों का आचरण और समाज का वातावरण यह चारों बातें ऐसी होनी चाहिए। आप जो प्रश्न कर रहे हैं वह सिर्फ शिक्षा नीति के बारे में है लेकिन शिक्षा तो इन चारों से होती है। इन चारों का भी विचार करना होगा। हमारी शिक्षा दुनिया के संघर्ष में खड़ा होकर अपना और अपने परिवार का जीवन चला सके इतनी कला और इतना विश्वास देने वाली होनी चाहिए। दूसरा इस दुनिया से मैंने लिया है तो इस दुनिया को मैं वापस करूँगा, इसके लिए मुझे जीना है। तीसरी बात यह जीवन जीते समय जो शिक्षा मुझे मिली है, उसके आधार पर सब अनुभवों में से मैं जीवन के लिए कुछ सीख लूँगा, जीवन के उतार-चढ़ावों में से जाते समय मैं जीवन के आनंद को ग्रहण करूंगा। सकारात्मक दृष्टिकोण निर्माण होगा। शिक्षा इस प्रकार की होनी चाहिए। अभी जो शिक्षा नीति बनी है उसमें कुछ कदम इस तरफ बढ़े हैं, यह अच्छी बात है। लेकिन इसे पूर्णता नहीं माननी चाहिए। पूर्ण नीति सरकार जब भी बनाएगी तब बनाएगी, पर तब भी इसका क्रियान्वयन केवल शिक्षा व्यवस्था नहीं करती है, धर्म और समाज भी करता है। सब मिलाकर इस वातावरण को बनाकर हमें चलना है।

अमोल- भारत में जब हम जनसंख्या को देखते हैं तो करीब 50% जनसंख्या वह महिलाओं की है। वह एक शक्ति है। उस शक्ति का विश्व गुरु भारत में किस प्रकार से योगदान चाहते हैं और यह किस प्रकार संभव हो सकता है?

हम स्त्रियों का बराबरी में योगदान चाहते हैं। उनको बराबरी में लाना पड़ेगा। उनको सक्षम करना पड़ेगा, उनको प्रबोधन देना पड़ेगा, उनको सशक्त बनाना पड़ेगा। कर्तृत्व उनमें है। उनको बाकी मदद करने की जरूरत नहीं है। हमने जो दरवाजा बंद किया है केवल वह खोलना पड़ेगा। आज के समय में भारतीय महिला की यह प्रतिमा है कि घर परिवार की जिम्मेदारी के अतिरिक्त वह कुछ नहीं करेगी। घर परिवार की जिम्मेदारी के साथ वह सब कुछ करेगी। लेकिन इसके लिए घर-परिवार की जिम्मेदारी में उसको कुछ राहत और जितनी वह चाहे, उतनी स्वतंत्रता उसे देनी चाहिए। तो आज की परिस्थिति में, अपना यह जो स्थाई मूल्य है परिवार का, उस परिवार में महिला का स्थान माता का है। उसकी सृजनशीलता भी है और वह शक्ति भी है। वह प्रतिभा भी देती है और साथ में पूरी ताकत भी देती है। उसके इस स्थान को पहचान कर उसको ना तो देवी बनाकर पूजा घर में बंद रखो और ना ही दासी बना कर उसे किसी कमरे में बंद करो। उसको भी बराबरी से काम करने दो, जिम्मेदारी लेने दो इसके लिए उसे सशक्त बनाओ। उसे आगे बढ़ाओ। अगर उसकी इच्छा है तो आर्थिक दृष्टि से वह संपूर्ण हो सके, ऐसी उसको सलाह दो और अवसर दो। इस दिशा में हम थोड़े-थोड़े आगे बढ़ रहे हैं। यह हम करेंगे तो वह बराबरी से अपना सहभाग और सहयोग करेगी। वह बराबरी से करेगी, तो पुरुषों के भार को भी वह सहज रूप से बहुत हल्का बनाएगी। क्योंकि उनके ऐसा करने से भी हमारे यहाँ शक्ति का नया संचार होगा तथा हमारे काम ओर आसान हो जाएँगे। “इसलिए यह बराबरी का सहभाग और बराबरी की तैयारी”, महिलाओं के बारे में यह स्थायी विचार होना चाहिए।

अमोल – भारत का वर्णन युवा भारत के रूप में किया जाता है, युवाओं से आप किस प्रकार की अपेक्षा करते हैं।

युवा शब्द से जो निर्देशित होता है हम वही अपेक्षा रखते हैं। युवा यानी वह किसी बेड़ी में नहीं अटकता ना किसी किताब में अपने आपको बाँधता है। युवा नित्य नया विचार करने में सक्षम होता है। वह सपने देख सकता है, वह बिना विचार के पूछ सकता है। उसमें साहस होता है। किसी भी तरह का रिस्क ले सकता है, उसमें उत्साह है, उसमें उदारता है। बच्चों में और युवकों में संवेदनशीलता अधिक होती है। बच्चों में सबसे अधिक होती है लेकिन बच्चों में ताकत नहीं होती है, वे परावलंबी होते हैं। युवा में ताकत भी रहती है इसलिए संवेदनशीलता के आधार पर वह सत्य और न्याय के साथ खड़ा रहता है और अगर वह मन से चाहे तो इधर का हिमालय उधर ले जाने की उसके पास ताकत है। अब यह इतनी बड़ी प्रचंड शक्ति है क्षमतावाली कि उसे सिर्फ दिशा देनी है बाकी सब वह जानता है। लेकिन अगर युवा केवल अपने करियर और स्वार्थ का विचार करके चले, युवा किसी भी प्रकार के रिस्क से डरे, तो वह उद्योग नहीं करेगा। उसे हमेशा नौकरी ही करनी होगी क्योंकि नौकरी सुरक्षित है। अगर सरकारी मिल गई तो ज्यादा अच्छा है। ऐसा विचार करे तो वह काले बाल वाले बूढ़े हो गए और अब्दुल कलाम जैसे लोग सफेद बाल वाले जवान। वि.द. घाटे जी की एक किताब थी ‘पांढ़रे केस हिरवी मने।’ ‘हिरवी मने’ मुख्य बात है। हमारे तरुणों का हरा-भरा मन बनाए रखना चाहिए, इसलिए उनको प्रोत्साहन मिलना चाहिए। उनको दिशा देने के लिए, उनको सहायता करनी चाहिए और उनके सामने नए-नए भव्य क्षितिज उद्घाटित करने चाहिए। ताकि वे ऐसा कर सकें।

डॉक्टर जोशी प्रवास के लिए चीन गए थे। उनका प्रवास समाप्त होने के बाद उनको वापिस आना था। लेकिन चीन के राष्ट्रपति ने फोन करके उनको रोक लिया। कहा कि एक हमारे विश्वविद्यालय (युनिवर्सिटी) का सम्मेलन है। सारे देश के लगभग 2 लाख युवा आने वाले हैं। उसका उद्घाटन समारोह देखकर आप वापिस जाइये। यह बात सन 1980 की होगी। उसका शुभारंभ ऐसा था की ये सब युवा जहाँ बैठे थे, वहाँ अंधेरा था। धीरे-धीरे प्रकाश होने लगा। सामने वाला पर्दा एकदम से जगमगा उठा और पूरे विश्व के नक्शे में चीन लाल- पीले रंग में, ऐसा थोड़ा उभरा हुआ दिखने लगा। चीन से ड्रैगन निकलकर सारी दुनिया के आकाश को पदाक्रांत कर रहा है, ऐसा दिखाया गया। फिर निवेदक पृष्ठभूमि से कहता है कि एक जमाना ऐसा था जब चीन का ड्रैगन अपने पंखों की हवा से सारी दुनिया को साफ करता था। चीन के ड्रेगन की छाया सदा सर्वदा दुनिया पर थी। हमको अपने चीन को ऐसा फिर से बनाना है। यह कम्युनिस्ट चाइना की बात है। लेकिन उसने अपनी युवा पीढ़ी के सामने एक लक्ष्य रखा है। जयप्रकाश जी ने इस्रायल में पूछा कि इतना सारा कष्ट झेलकर आपके युवा यहाँ आए हैं, उनको आप प्रेरित कैसे करते हैं? तब जयप्रकाश जी से यह पूछा गया कि यह बताइए आपके देश के युवकों के मुख में गीत कौन से रहते हैं। तो युवाओं के सामने ऐसे सपने रखना, युवाओं के सामने आदर्श रखना क्योंकि युवा किसी भी प्रकार के दंभ को सहन नहीं करता और तुरंत पहचान जाता है। उनके सामने आचरण के भी उदाहरण रखने पड़ते हैं । हम ऐसा करेंगे तो युवा में सब कुछ है ।

रवि- अभी जो कोरोना की आपत्ति का कालखंड आया है, उसके बाद हम आगे कैसे बढ़ेंगे इस बात की बहुत चर्चा हो रही है। भविष्य का भारत हमेशा चर्चा में रहा है। संघ प्रमुख के नाते आप इस विषय अर्थात “भविष्य के भारत पर” को किस रुप में देखते हैं ।

मन की अयोध्या की बात मैने पहले ही कही है। भारत की व्यवस्थाओं के बारे में दुनिया की दृष्टि की बात आपने पूछी, वह मैंने बताई।

यह दोनों बातें ठीक हो जायेंगी तो भविष्य का भारत अपने आप गढ़ा जाने वाला है, क्योंकि आज अपने देश में विशेषकर युवा पीढ़़ी में अपने देश को बड़ा बनाने की चाह है। सौभाग्य से घटनाएँ ऐसी घट रही है कि हमारा विश्वास अधिक से अधिक बढ़ रहा है। कोरोना की आपत्ति में स्वतंत्रता के बाद पहली बार यह दृष्य हमने देखा कि बिना किसी के बताए पूरा-पूरा समाज एक साथ खड़ा हो गया। किसी ने भी सरकार की राह नहीं देखी। स्वयं से होकर किया। आजकल मीडिया में बहुत बातें नकारात्मक (negative ) ही आती हैं। यहाँ सिर्फ कोरोना पॉजिटिव की संख्या ही आती है निगेटिव की नहीं आती। हमने देखा कि कोरोना के समय अनेक मालिकों ने अपने मजदूरों को बिना काम के भी रखा, छोड़ा नहीं, उन्हें पूरा वेतन दिया। अब मालिक अपना उद्योग शुरु करने जा रहे हैं तो बहुत अधिक स्थानों पर यह अनुभव आ रहा है कि मज़दूर कह रहे हैं कि उस समय आपने हमको पाला, अब आप कठिनाई में हैं तो आप वेतन बाद में दे देना। हम कार्य प्रारंभ करते हैं। सब मिलाकर समाज एक साथ खड़ा हुआ है। दूसरी बात, शासन व्यवस्था, प्रशासन व्यवस्था जो कुछ कहती है उसका अपने समाज के अनुशासन के स्त्तर का देखेंगे तो उसकी तुलना में उसने उसका बहुत अच्छा पालन किया है। और सिर्फ पालन ही नहीं किया, एक विश्वास का नाता भी दिखा। जैसे प्रधानमंत्री जी ने कहा कि “दीप जलाओ या थाली बजाओ”। कुछ लोग ऐसा कहने वाले भी थे कि इन बातों से क्या होगा। लेकिन सामान्य समाज ने ऐसा नहीं कहा। उसने कहा कि प्रधानमंत्री कह रहे हैं तो जरूर इससे कुछ होगा, इसलिए करना है। शास्त्रीजी के समय में भी ऐसा दिखा था, 1971 के युद्ध में इंदिरा जी के समय में भी ऐसा दिखाई दिया था। मैं यह व्यक्तियों की प्रशंसा करने के लिए नहीं कह रहा हूँ। मैं यह कह रहा हूँ कि समाज जब खड़ा होता है तो वह अपने अंदर की उर्जा के कारण खड़ा होता है। उसको लगता है कि ये चुनौतियाँ हमारे देश को नहीं झुका सकती। आज चीन की चुनौती है। 8 साल का बच्चा भी, जो खिलौना उसने हठ करके लिया है, जब वह यह देखता है कि यह चीन निर्मित (made in China ) है तो उसको फेंक देता है। मेरे पैसे वापस करो, मुझे यह नहीं चाहिए, वह ऐसा कहता है। आज ऐसा वातावरण है , इसलिए यह भावना जागी है। इस भावना के लिए आवश्यक जो गुण संपदा वह मन की अयोध्या में मैंने कहा है और इसके लिए भविष्य का मार्ग (roadmap ) जो होगा वह “भारतीय मानस के आधार पर कॉलोनाइजिंग के प्रभाव से पूर्णतया मुक्त होगा”। अन्य देशों से जो देश-काल-परिस्थिति सुसंगत है, अच्छा है, देश के लिए उपयुक्त है, वह हम ले सकते हैं। ये दो बातें हम करेंगे तो तीसरी बात करने की आवश्यकता नहीं है।

रवि- जब भी भविष्य के भारत का विषय होता है तब “विश्वगुरु भारत” यह विषय भी चर्चा में आता है। स्वामी विवेकानंद जी से लेकर श्रीगुरुजी तक अनेक महापुरुषों ने विश्वगुरु भारत की संकल्पना व्यक्त की है। आज की स्थिति में विश्वगुरु भारत कैसा होगा। अनेक देशों की तरह अर्थ सत्ता के बल पर दूसरों को झुकाने वाला या विश्व गुरु भारत। हमारी संकल्पना क्या है ।

हम सत्ता पर तो विश्वास ही नहीं करते। हम जब बड़े होते हैं तो भूभाग नहीं शत- शत मानवों के हृदय जीतने का हमारा हैं।

एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मन:।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षरेन्पृथिव्यां सर्वमानवा: ।

अपने-अपने चरित्र, एक-एक के चरित्र द्वारा दुनिया को यह शिक्षा हमें देनी है। हम किसी को हड़पना नहीं चाहते और किसी का वैशिष्ट्य नष्ट नहीं करना चाहते। हम किसी देश को गुलाम नहीं बनाना चाहते और किसी की संपत्ति हथियाना भी नहीं चाहते। इस अर्थ में हम महाशक्ति बनना नहीं चाहते। हमारी शक्ति होगी, हमारा ज्ञान होगा, हमारे पास धन-संपत्ति भरपूर होगी, दुनिया में अर्थ की दृष्टि में क्रमांक एक हम होंगे, लेकिन हम इसका उपयोग क्या करेंगे – “ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय” हमारे यहाँ कहा जाता है-

विद्या विवादाय धनं मदाय, शक्तिः परेषां पिरपीडनाय।

खलस्य साधोर्विपरीतमेतत्, ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय ॥

जो महाशक्ति बनते है वो डंडा चलाते हैं। हम ऐसा नहीं करेंगे। हम दुनिया का ज्ञान बढ़ाने के लिए अपने ज्ञान का उपयोग करेंगे। दुनिया में दुर्बल की रक्षा हो हम इस तरह अपनी शक्ति का उपयोग करेंगे। दुनिया में जिनके पास नहीं है उनको देंगे। हमारी संपत्ति बढ़ेगी तो हम दूसरों को देंगे। बाकी लोगों को अपने अस्तित्व (survival) की चिंता है। उनके बुनियादी विचार ही ऐसे हैं। अच्छा बुरा छोड़ दीजिए। उनके अनुभव से उनका निष्कर्ष यह है। यह दौड़ (race ) है, उसमें जीतना है। जो आगे रहेगा वह जीतेगा। किसी भी प्रकार से आगे चलो। वह कितनी भी चिकनी चुपड़ी बातें कर दें गंतव्य तो वही रहता है। अंत में सब वापस आ जाते हैं। “संपूर्ण विश्व” वैश्विक बाजार, (global market ) आदि की बात बार-बार करते थे, पर आज कह रहे हैं स्वदेशी-स्वदेशी (National-National)। क्योंकि कोई विचार तब तक है जब तक अपने को वह हानि नहीं पहुँचाता। लेकिन भारत का ऐसा नहीं है। भारत कहता है कि “सब जिएँगे तो हम जिएँगे, और अगर हम जिएँगे तो सब जीने चाहिए”। जब भारत ऐसा देश बनेगा तो लोग इसे विश्व गुरु मानेंगे। वैसे आज भी विश्व हमें मानता है। कारगिल के युद्ध के बाद उसका अध्ययन करने के लिए चार-पांच प्रगत देशों की टीमें भारत में आईं थी। हमारे जवानों का शौर्य और पराक्रम है ही, पर सर्वाधिक महत्व की बात है कि दूसरे देश के द्वारा लादा गया युद्ध उनकी सीमा का उल्लंघन ना करते हुए हमने कैसे जीता? यह विचार कौन कर सकता है? यह विचार केवल भारतीय कर सकते हैं। यह सही है या गलत, यह चर्चा छोड़ दीजिए, लेकिन यह विचार मन में आना यह सिर्फ भारत में ही हो सकता है। इसलिए भारत जब विश्व गुरु बनेगा, तब भारत “एक देश के नाते एक राष्ट्र का आचरण” से और भारत के एक-एक व्यक्ति के जीवन के अनुसरण से, सारी दुनिया अपना जीवन बनाएगी। अमेरिका में 65 % लोग शाकाहार का उपयोग क्यों कर रहे हैं, सारा विश्व योग क्यों कर रहा है? धीरे-धीरे पूरी दुनिया हमारी ओर देख रही है और विचार कर रही है। हम दुनिया की आवश्यकता पूर्ण करने वाले बनेंगे, ऐसी शक्ति हमारे पास होनी चाहिए।

अमोल – भारतीय जनमानस में रामराज्य के प्रति सदियों से गहरी आस्था है । रामराज्य की संकल्पना क्या है और उसे हम वर्तमान में किस प्रकार से पूरी कर सकते हैं?

जनता नीतिमान और राजा शक्तिमान और नीतिमान इस प्रकार की वो व्यवस्था थी। जनता के सामने राजा नम्र था और राजा की आज्ञा में जनता थी। यानी लोगों की चलेगी या राज्य की चलेगी ऐसा सवाल नहीं था। राजा कहता था जैसा लोग कहेंगे वैसा होगा और समाज कहता था कि राजा को सब पता है वह जो कहेगा वैसा होगा। मुख्यत: चोरी-चपाटी की बातें नहीं थी। नीतिमानता थी, उद्योग-परिश्रम की कीमत थी। श्रम को आदर और सम्मान दिया जाता था और अपने परिश्रम से जीने की युक्ति थी अत: समृद्धि थी। अपने यहां श्रीसूक्त में एक मंत्र है – कि अगर लक्ष्मी नहीं है तो उसके क्या लक्षण होते हैं – क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहं। अर्थात रोग, भूख और प्यास यह एक लक्षण है। दूसरा है क्रोध, मात्सर्य यानि एक दूसरे से ईर्ष्या, लोभ, गुस्सा अर्थात आपस में लड़ाई, अस्वच्छता यह सब अलक्ष्मी के लक्षण हैं। यह सब नहीं थे, इसलिए भरपूर लक्ष्मी थी और धन का व्यय धर्म के लिए होता था भोग के लिए नहीं। जितने भोग आवश्यक थे वह सब दिए जाते थे। जहां-जहां आवश्यकता है वहां थोड़ा बहुत जीवन रंगबिरंगा हो इसलिए साज-सज्जा भी रहती थी। कनवीनियंस थे, आवश्यकताएँ पूरी की, पर भोग-विलास (लक्सरीज ) को टाला। इस प्रकार का जनजीवन अपने को समझने वाला, अनुशासित, संयमित,जागरूक, संगठित और राजा धर्म की रक्षा करने वाला और स्वयं धर्म से चलने वाला, नियमों का पूर्ण पालन करने वाला, सत्ता को प्रतिष्ठा मानकर उसका उपयोग जनहित के लिए करने वाला था। यानी राजा बोल रहा था कि राज्य आपका है आप करो। पिताजी के मन में भी यही था पर माताजी के कारण राम को जंगल में भेज दिया। वे चले भी गए। भरत ने कहा मुझे राज्य मिला। माताजी का भी आग्रह छूट गया। अब मैं आपको कह रहा हूं वापस चलो। पर राम जी कहते हैं नहीं, मैंने वचन दिया है। यह दोनों सत्ताधारी हैं लेकिन राज्य का लालच किसी को भी नहीं है। आखिर भरत को वापस जाना पड़ा तो राम की पादुका को सिंहासन पर बिठाया। तो राजा ऐसे और प्रजा ऐसी – यह रामराज्य था। व्यवस्थाएं आज बदल गई हैं। लेकिन लोगों की नियत-नीति, भौतिक अवस्था, राजा की नियत-नीति और भौतिक अवस्था यानि राज्य शासन में जितने भी लोग हैं और इस बीच जो प्रशासन है यह तीनों की जो गुणवत्ता (क्वालिटी) है। वह गुणवत्ता हमको फिर से लानी पड़ेगी। उस क्वालिटी को रामराज्य कहते हैं। उसके परिणाम यह है कि रोग नहीं रहते, असमय मृत्यु नहीं होती, कोई भूखा नहीं, कोई प्यासा नहीं, कोई भिखारी नहीं, कोई चोर नहीं, कोई दंड देने के लिए नहीं तो फिर दंड क्या करें। यह सारी बातें परिणाम स्वरूप है क्योंकि उसके मूल में राज्य व्यवस्था-प्रशासन व्यवस्था और सामाजिक संगठन इन तीनों की एक वृत्ति है। राम के अवतार लेने से यह नहीं होगा। राम का अवतार तो बाधा हटाने के लिए था। समाज की ऐसी स्थिति थी इसलिए बाधाएँ हटने के बाद यह सब हो गया। तो आज समाज की स्थिति रामराज्य जैसी बनानी पड़ेगी। क्योंकि आज राजा भी और प्रशासन भी समाज से ही जा रहा है। हम वहां से शुरू करेंगे तो राम राज्य आएगा।

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