आर्यों का आगमन भारत के बाहर से हुआ, इस अवधारणा को गलत साबत करते हुए मनोज सिंह बता रहे हैं कि आर्य अपने कालखंड में असाधारण रूप से संपन्न थे। तकनीकी रूप से विकसित थे। सामाजिक रूप से सभ्य थे। सांस्कृतिक रूप से समृद्ध थे। ज्ञान की तो कोई सीमा ही नहीं थी, वेद इसका प्रमाण हैं।प्रस्तुत हैं, इस पुस्तक के प्रमुख अंश:
“आर्य कौन थे, जैसे सवाल आधुनिक विश्व में जब पूछे जाते हैं तो ..आश्चर्य नहीं होता। संक्षिप्त में उत्तर देना हो तो आर्य कोई ‘रेस’ नहीं है। यह उनकी कल्पना है, जो .. आर्यों को भारत में बाहरी और आक्रमणकारी दिखाना चाहते हैं।….जो लोग ऐसा कहते हैं, वे इसके माध्यम से असल में अपने एजेंडे को स्थापित करना चाहते हैं। लेकिन झूठ तो फिर झूठ है, वह देर तक टिक नहीं पाता। इन लोगों को फिर एक झूठ के लिए अनेक झूठ बोलने पड़ते हैं। सबसे पहले तो ये झूठ बोलनेवाले लोग अनार्य होने का उत्तम उदाहरण हैं।
आर्य कोई जाति भी नहीं। सीधे-सीधे कहूँ तो आर्य इस विशाल देवभूमि की संतान हैं। फिर सवाल उठता है कि अनार्य कौन थे? वे भी इसी भूमि की संतान थे। लेकिन फिर यह कहते ही पुन: भ्रम हो सकता है। ऐसे में कह सकते हैं कि आर्य सपूत थे और अनार्य कपूत। कहना चाहूँगा कि आर्य होना श्रेष्ठ होना है। अब श्रेष्ठ होना क्या होता है? क्या पढ़ा-लिखा होना या बलशाली होने से इसका संबंध है? नहीं, ज्ञानी तो रावण भी था और शक्तिशाली राजा भी, मगर वह आर्य नहीं है। हाँ, विभीषण आर्य कहलाएगा। रावण की पत्नी मंदोदरी आर्या है। आर्यपुत्र दशरथ की महारानी कैकेयी आर्या नहीं हैं। जहाँ माता सीता होना ही आर्या होने को परिभाषित करता है, वहीं श्रीराम आर्य होने के सर्वोत्तम उदाहरण हैं। महर्षि वाल्मीकि अपनी रामायण में कहते भी हैं—‘रामो विग्रहवान् धर्म:।’ (अरण्य कांड, सर्ग-37, श्लोक-13) अर्थात् श्रीराम धर्म की प्रतिमूर्ति हैं। उनका संपूर्ण जीवन धर्म पालन पर ही केंद्रित रहा। यही आर्य होना है। वाल्मीकि रामायण (बालकांड, सर्ग-1, श्लोक-16) में कहा भी गया है कि श्रीराम आर्य थे और अयोध्या कांड (सर्ग-1, 20वें श्लोक) में उन्हें संपूर्ण वेदों का ज्ञाता भी कहा है। संक्षिप्त में कहना हो तो वेदों पर आस्था और धर्म पर चलनेवाले आर्य हैं। उम्मीद करता हूँ कि आर्य होने की परिभाषा कुछ-कुछ समझ आ रही होगी।
कुछ एक उदाहरण से यह स्पष्ट हो जाएगा। धृतराष्ट्र आर्यपुत्र होते हुए भी आर्य नहीं, वहीं दासी-पुत्र विदुर आर्य हैं। सभी कौरव अनार्य हैं। दुर्योधन तो दुष्ट है, राक्षस है और अनार्य होने को सच्चे अर्थों में परिभाषित करता है। पांडव आर्यपुत्र हैं तो श्रीकृष्ण यदुवंशी होते हुए भी आर्य हैं। मैं यह जान रहा हूँ कि इन उदाहरणों में से कोई भी वैदिककालीन आर्य नहीं है। लेकिन चूँकि ये त्रेता और द्वापर के चर्चित नाम हैं, अत: इनके माध्यम से आर्य होने को परिभाषित करना सार्थक और सरल है।’
‘आर्य होना एक विचार है, भाव है, व्यक्तित्व है, जीवनशैली है, जीवन संस्कार है। यह धर्म का मार्ग है।..पूरे विवरण को समग्रता से देखकर कुछ बातें स्पष्ट रूप से कही जा सकती हैं। आर्य अपने कालखंड में असाधारण रूप से संपन्न थे। तकनीकी रूप से विकसित थे। सामाजिक रूप से सभ्य थे। सांस्कृतिक रूप से समृद्ध थे। ज्ञान की तो कोई सीमा ही नहीं थी, वेद इसका प्रमाण हैं।’
‘… जहाँ तक रही बात … वैदिक आर्यों की कर्मभूमि की, तो इसका विस्तार ऋग्वेद 10.75 सूक्त के ‘ऋषि सिंधुक्षित् प्रैयमेध’ की ऋचाओं से स्पष्ट होता है। इसके देवता नदी समूह हैं। इसे ‘नदी सूक्त’ भी कहा जाता है। इसमें 9 ऋचाएँ, जिसमें सप्तसिंधु की पूरबी और पश्चिमी सीमा का उल्लेख है। पूरब में जहाँ गंगा का वर्णन है, वहीं पश्चिम में सिंधु की सहायक नदियाँ; जैसे तुष्टामा, रसा, श्वेत्या, कुभा और मेहत्नु आदि का हुआ है। बीच में यमुना, सरस्वती, शुतुद्री (सतलुज), परुष्णी (रावी), असिक्नी (चिनाव) आदि-आदि नदियों का वर्णन है। इन्हीं सब का तट हमारी कर्मभूमि थी। इन्हीं नदियों के बीच ‘सिंधु-सरस्वती सभ्यता’ पनपी, जो वैदिक कालखंड का ही हिस्सा है। ऋषि सिंधुक्षित् (ऋ. 10.75.5) कहते हैं कि ‘हे गंगा, यमुना, सरस्वती, शुतुद्री, परुष्णी, असिक्नी, मरुद्वृधा, वितस्ता (झेलम), आर्जीकीया (व्यास) और सुषोमा (सिंधु) आदि नदियो, आप सभी हमारे स्तोत्रों (स्तुतिगान) को सुनें।’
ऋषि वामदेव गौतम (ऋ. 4.26.2) इंद्र के माध्यम से कहते हैं, ‘मैंने यह भूमि कर्म व धर्मानुसार जीवनयापन करनेवाले ‘आर्य शिष्टजनों’ को सौंपी है, मैं ऐसे दानी मनुष्य के लिए ही वर्षा करवाता हूँ, वायु को प्रवाहित करता हूँ, समस्त देवता-विद्वज्जन मेरे संकल्प का अनुसरण करें।’ आर्यों के चरित्र का यह अर्थपूर्ण प्रस्तुतीकरण है।
वेदमंत्रों की शिक्षा हम आर्यों के जीवन में कैसे चरितार्थ होती थी, श्रीराम का चरित्र उसका दृष्टांत है। रामायण की ऐतिहासिक कथा के हर पात्र में .. गुणों को देखा जा सकता है। आदर्श राजा, आदर्श पुत्र, अनुगामी भाई, अलभ्य सेवक, सती-साध्वी पत्नी। गांभीर्य की यह पराकाष्ठा है। विश्व इतिहास में ऐसे दृश्य दुर्लभ हैं। एक उदाहरण लें, तो राम कहते हैं कि अगर मैं पिता की आज्ञा नहीं मानूँगा तो सारे राज्य में प्रजा पितृ आज्ञा का उल्लंघन करेगी, इस तरह राज्य और परिवार में अव्यवस्था उत्पन्न होगी उत्पन्न होगी (अयोध्या कांड 23.5-7)। उनके हर निर्णय में यही भाव रहे हैं, ।”
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